Thursday, January 22, 2015

कोई किताब जब लाते हो तुम मेरे लिये
उस पर हस्ताक्षर करते हो अपने होठों से
तब के समय से लेकर अब तक वो हस्ताक्षर
मेरी नसों में एक नया ईश्वर रच रहे हैं....
मुझसे पढी नही जाती अब कोई और किताब...

शब्द

शब्द इच्छा नहीं रचते....
शब्द इच्छा रचते हैं और
दूरियां प्रेम..
कितने बेढंगे तरीके से सोचती हैं 
आत्मा की इमारतें..
प्रेम के परे जाना, देह से छूटा कोई बुलबुला नहीं..
प्रेम – एक गुमनाम चिट्ठी और उस पर लिखा सही पता
या कुछ ऐसा ही पागलपन लिये
चलता है डाकिये के साथ..
हम दोष देते हैं
वो हंसता है..
क्योंकि शब्द केवल इच्छा बताते हैं....
रचते नही....
श्री
....
एक निर्दोष कविता.......
कविता की मेरी अपनी आत्मा है
अपनी गंध और नशा
कच्ची शराब सा..
सामने की खिड़की
से 
दिखाई देती रात से अलग..
हालाकि रात का भी अपना सौंदर्य है
पर मैं अपनी कविता में
कोई आंसू नहीं एकत्रित करती
न धूप न बारिश न रंग
और न कोई आवाज़..
आवाज़ें कोलाहल को जन्म देतीं हैं
मुझे ज़िंदगी का यह कोलाज पसंद नही..
न ही पसंद है ढेर सा पानी और मिट्टी..
दरअसल मेरी अपनी कोई विशेष चाहत अब बची ही नही मुझमें
ये नसीहतें मेरे पिता ने दीं
कि चाहतों को कैसे सिमिट्री में देखतें हैं
कुछ सुंदर कलियों और रोती हुईं चिडियों के साथ...........
वर्षों बाद अब जब सब बदल चुका
और मैं भी परिप्क्व औरत बन चुकी
थोडी भारी और बिना रंगे नाखूनों वाली..
तब मैंने एक दिन देखा
कि अब मैं बीच रास्ते पहुचं चुकी
जहाँ से दुनिया आपकी आत्मा से दूर दिखाई देती है
यह एक डर था...
एक भूलभूलेया थी...
अपने को खोने की...
उस पल मेरी आंखे बंद थीं
और अब बस यह एक बार होने के लिये था..
जब आंखे खोली तो देखा
मेरे हाथों में एक कविता थी
बिना रंग, बिना धूप, बिना आंसू और बिना आवाज़ के..
लकिन उसमें एक आत्मा थी..
बिल्कुल निर्दोष .............
वो रात भर बैठा रहा 
उसके दिल पर दस्तक देता
कॉफी के घूंट गले में उतारता
कि शायद कोई होगी बेज़ार सी मुशकिल
या हो भी सकता है
कि नींद ने अपने आगोश में लिया हो उसको
और यहाँ रात है कि ढलने का नाम नही लेती...

गुलाबी झील

यह तब की बात है
जब मैंने एक गुलाबी झील में हिचकिचाते हुए पैर रखा था
बंद लिफाफे खुलने से डरने लगे
कांपती उंगलियों से सिकोडे रहे खुद को
जैसे उनमें से तितलियों के पंख लगा कर
अक्षर शब्द बनकर उडानें भरने लगेंगें
और लिफाफों में बंद तस्वीरें बोलने लगेंगी
मैं आसमान में बैठे बादलों के बेहिसाब झुंड में से
किसी एक में छिप जाना चाहती हूँ
बूंद बूंद बह जाना चाह्ती हूँ बारिश के संग
तब वो घूरती आंखे कितनी बूंदो को इक्क्ठा करेंगी
और मुझे दोबारा बनाएंगी
मैं दस सूरज देखती हूँ
और एक की ओट लेती हूँ
यकीनन वो घूरती आंखे वहाँ पिघल जाएंगी
मै उन लिफाफों को जबरन बंद करती हूँ
इस कोशिश में
मेरे हाथ से लगकर पास रखा पारदर्शी फूलदान गिर जाता है
और गिर जाते हैं वो सूखे फूल
जो प्रेम का आग्रह थे...
जन्मदिन की बधाई थे...
और कुछ बस यू ही थे...
वे वैसे ही थे कि वो सूखे ही थे
इस झील में कोई हंस मोती बटोर रहा था
पगला कहीं का......

श्री...

अजन्मे डरों का अंधेरा
जब घेरता है
मुझे
तो जानते हो 
कहाँ सर छुपाती हैं
मेरी तमन्नाये ...
तुम्हारी गोद में..

नाभि की हलचल

नाभि की हलचल मैं समझ न सकी
मेरा ‘मैं’ वजूद में उतरा
भोर के रह्स्यमयी हरसिंगार की
महक में दहकी
मुहब्बत की तपिश ने
कोख को चूमा
और अम्बर के सारे सितारे
मेरे घर की छत पर उतर आये.....
मै......बासुंरी बन गयी....
श्री
..

खोना तुम्हारे बालों में

खोना तुम्हारे बालों में
मेरी उंगलियों का 
अब तक ढूंढ नहीं पाई..
क्या सुना था तुमने 
सदियों की सरसराहट में
कांपते गुलाबी होठों को प्रेमगीत गुनगुनाते...
आओ.....ले चलूं तुम्हें वहीं.....

एक जोगी है

रात आते-आते
छूट जाते हैं मुझसे सब रिश्ते..
नाम भी मेरे जिस्म से उतर जाता है
मैं...अबोध ह्व्वा हो जाती हूँ
ऐसी ही रातों को 
मैं चांद से मिलती हूँ...
एक जोगी है
जो देखता रहता है मुझे चुपके से
और मैं उसे....
मीलों दूर से...
तब से हर रात सरिस्का वन चांदनी में नहाया है.........
श्री...

एक फूल

स्पर्श
चुम्बन
आलिंगन
देह का समागम
ऐसा कुछ नही मिलेगा मेरे प्रेम में तुम्हें..
हाँ.....
एक फूल दे सकती हूँ
बुद्ध की चेतना से लिया था एक दिन...
क्या ले पाओगे उसे...
श्री.....

रोशनी के घाट

चाँद भी तो कहाँ रोशन होता है
उसके बिना...
उसकी किरणें जब दमकती हैं
तो संसार जागता है
मैं भी तभी जागी
जब उसकी आंच में सुलगी..
तब कहीं जाकर जाना
उसकी अपनी लौ को
मेरी अपनी लौ को...
कितने युगों से हूँ उसके साथ
सारे कदम गिनें हैं
पर आखिरी तीन कदमों में
उसे पाया मैनें
रोशनी के घाट पर.......
श्री...

अर्धनारीश्वर

उस रात....
मैं कितनी बेचैन थी
जब तुम दर्शन समझा रहे थे
मैं उलझ रही थी तुमसे क्रोध में
और तुम मुझसे प्रेम में...
कि कोई दर्द का रेशा मेरा हाथ लग गया तुम्हारे
बहुत देर तक खामोशी से बही थी आंखें
सोचा...
दीखता कहाँ है यह..
पर तुमने न जाने कौन सी तार से जमा कर लिये सब आंसू
मैं सो गयी दर्शन में उलझते
तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर...
कितनी देर तक
तुमसे उगा अर्धनारीश्वर
मेरे उलझे बालों को सुलझाता रहा........
तब से जी रही हूँ...............

श्री....

नीलकंठ

एक सौ आठ स्वप्न थे पूरे
जो देखे मैंने अकेले
प्रयाग धाम पर खडे हुए..
कोई भी स्वप्न मेरी धमनियों को तृप्त नहीं कर पाया
प्रयाग की सीढियों पर बैठे 
मैंने कई प्रार्थनायें समर्पित की अपने अज्ञात को
मगर हर आवाज़
हर प्रार्थना
समूचा अस्तित्व कण
लौट रहा था...बार बार
क्योंकि उनमें से एक भी स्वप्न
तुम्हारे गले को छूकर नहीं आया था........
नीलकंठ.......
श्री......

लिबास

हर रात, तुम्हारे जाले बुनते हैं सूक्ष्म मेरा
हर रात बहती हूँ
तुम्हारी रोशनियों की पवित्रता में
गाती हूँ तुम्हारे कानों में
ब्रहमांड के मौन गीत....
झूलती हूँ तुम्हारी चेतना के झूलों पर
नई बनी तितली जैसे..
नहाती हूँ तुम्हारी देह के प्राचीन जलकुंडों में..
पहनती हूँ तुम्हें अपना लिबास बनाकर..
तब कोई कविता जन्म लेती है मुझसे...
मैं.....ऐसे ही कविता कहाँ लिखती हूँ.........
श्री....

अनहद नाद

तीन ताल
सात सुर
मृदंगना का स्वर
और काम का मोहक सौंदर्य
सब दहक रहा है तुम्हारे तांडव में
देख रही हूँ तुम्हें
कैलाश को थरथराते....
पर देखो
मैंने भी खुद को ढाल लिया
उसी रंग में
जिस रंग में तुम्हारी आंखें हैं स्थिर
मेरी अधमुंदी कामनाओं को पीती हुईं...
सप्तपदी का धर्म निभाना नहीं आता मुझे
मैं बस प्रेम में हूँ तुम्हारे...
यह सात बूंदे विष की तो मैंने भी पी हैं
तुम्हारे अस्तित्व से खुद को सींचा है...
तुम्हारी मुद्राओं को स्थापित किया है अपने वसंत्तोसव पर
अनंतता के बोध में
यह प्रथम कामरात्रि है
मैं खो चुकी हूँ सब, जो था मेरा
सुन रही हूँ अनहद नाद...
ओ मेरे सनातन.........
श्री....
अक्षत मंथन की
गूंज
दिन देखा हर सीप ने..
सुना
महाप्रलय का भय..
थरथराया
समूचा नक्षत्र संसार..
विष
मगर एक ही महामानव पीता है
ॐ.......
श्री......

आज

आज....
एक भोले पीर ने
किताब दी कोई

हर्फ खुले तो जाना 
जन्मों के हलफनामें थे उसमे...
लोग बोले....
ये पीर तो झल्ला है
इसका क्या यकीन..
सुनते ही.....मेरी आंखे रुक गयीं उस भोले पीर पर
देखा..........
वह तो खुदा है
कायनात के दर पर......
मैं उसका नूर देख रही थी
कि नूर का एक पिघला टुकडा छिटक कर
मेरे वजूद से आ मिला...
मैं कोरी हो गयी
दरगाह पर बंधे धागे जैसी...
धीमी आवाज़ में कोई शख्स कह रहा था
लो.....ये भी झल्ली हो गयी......

श्री........

Wednesday, January 21, 2015

मैं इतिहास बन गया..

पैरों की हरी नसों की 
इबारतें पढते 
तुम्हारी पाजेब और बिछुओं की भाषा को सुना..
न जाने क्यों
माथे की लाल बिंदी शरमा गयी..
मैनें उसे पास आने का संकेत दिया..
कानों में झूलते बुंदे मुझसे उलझ पडे
मैंने तांबाई रंग को सीने में भरा..
भाग्यरेखा बताती तुम्हारी हथेली पर अदृश्य सावन रखे..
खिडकी खुली थी
और चांद झुक कर भीतर की दीवार पर जम गया..
एक थमी सी धरती की कथई रोशनी को
सुबह तक मंत्रों में ढाला ...
न जाने क्यों तुम्हारी पीठ नाराज़ हो गयी
और तुम्हारी आंख से
एक आंसू मेरी सफेद कमीज़ पर गिर गया....
रात भर तुम्हें पढते-पढते
मैं इतिहास बन गया.............

आत्मा का उत्सव 
सुनो,
कितना अविश्वसनीय है
कि मेरी तृप्ति का जल
तुम्हारे रंग का है..
याद है
एक बार
मिश्री के दाने खिलाये थे मुझे
गोधूलि बेला में..
चंदन महक रहा था
मेरी काया से..
तुम्हारे होंठ
मंत्र फूंक रहे थे आस्था का
मेरे होंठों में..
मैं अनिश्चित.....कि किस युग के घाट उतरु
कहूँ तुमसे
कि बांधों मेरे पैरों में पाजेब
समाधि के मनकों की
और
विकसित कर दो
मेरे सभी चक्र.........
श्री......
रचना हूँ..
तुम्हारे देवतत्व के उच्चतम शिखर की
जो बिखरा पडा है
मेरी आत्मा के सिरहाने....
एक सुराही है.. 
जिसे बरसों से भर रखा है मैंने
उस रहस्य से
जिसमे मैं तब प्रवेश नही करती
जब रजस्वला होती हूँ.....
नई होकर
जब लौटती हूँ तुम्हारे पास
तो अपनी धुली चेतना के धागों से
एक बार फिर
बुनती हूँ
वही प्राचीन रहस्य.....
जिसे तुमने निगल लिया था नींद में.....
श्रृंगार किया था मेरा
और नाम दिया था मुझे...
सजनी.........
श्री....... 

वो....... 
एक कतरा भर था
सूरज के कटोरे से होशमंद हुआ
वीणा के तारों में
कोई शब्द फूंक रहा था...
सांसें बिखरती
तो चांद की सफेदी ओढ़ लेता
पर गुनगुनाता रहा वो सदियों तक....
हथेली पर
सुख की मेंहदी से अपना नाम लिख
बस जाने को ही था
कि सभ्यता की सब दीवारें ढह गयी...
हथेली कांप गयी मेंहदी वाली
कि ऐसे जाने से
भला कोई प्रार्थना पूरी होती है
रब की......
और उस बात के बाद
वो होशमंद कतरा
कभी नही गया
किसी और हथेली पर
सुख रचने...........

श्री...........