स्वप्नरेखायें .............आडी-तिरछी.......अबूझ पहेलियां और तपते रहस्य एक के बाद एक सब में डूबते गये.....जीवन के सूक्ष्मतम तत्व को आत्मा में ग्रहण करते ....
समाधिष्ट होते तत्वों के नन्हें तंतु सुनते.....
शब्द सुनने की कोशिश में मौन को पीते
जिस्मों की अबोली भाषा से....
देह के कमल रहस्यों में खुद को खोजते
जैसे कोई अधूरी कविता को दोहराता है बार-बार.....
तब.....
एक तल खुलता है नया.....जिस पर पावं रखते ही हम तैरने लगते हैं
अपनी-अपनी समाधियों के नव-शिल्पों की शीतल धारा में......
धीरे-धीरे उतरने लगती है रात
शिथिल आत्माओं की सफेद चादरों पर.........
हम चूमते हैं उंगलियां एक-दूसरे की, विस्तारित रात के पाखियों की कलरव में.....
टांगते जाते हैं एक-दूसरे के अनकहे शब्द..... बोधि वृक्ष की शाखों पर...
हम सोते हैं बुद्ध की आंखों में
और जागते हैं बुद्ध की ही आंखों में.........
श्री...............
प्रस्थान........ श्रेष्ठता की ओरऔर तथाकथित पवित्रता के हाथ मृत्यु की औपचारिकता मात्र निभाते हैं.........
अपराध........ मूर्खतापूर्ण
निर्रथक रचनात्मकता का अंतर्विरोध हैं..............
मृत्यु के लोक में एक स्वर्ग भी सांस लेता है
छुपी हुई.......
जैसे मनुष्य के भीतर ईश्वर जन्म लेता है
कभी - कभी.......
गुलाम आत्मा चुनता है जीवन
ताकि देख सके अपराध... अपनी अंधी आंखों से.....
विकृत सदियां पलती हैं समय के लिसलिसे अंधेरों में...
खौलते बुद्धिमान चेहरे हंसते हैं एक नई हंसी में दुनिया पर...
हम लौट आते हैं थके हुए अपने बिंदु पर
फिर चाहे यह आत्मछल ही हो.........
धर्म की अपनी – अपनी लडाईयां हैं
और.....
मनुष्य निर्जीव ईश्वर की खाल में शिकार तलाशता है.......
रोज़ नये............
श्री.........
अदृश्य दीवारों के पीछेरचती है दृश्य .......गिनती है अनगिनत महीने गर्भ के देखती है सपाट उदर को बढते
हाथ पिता के छूती है
जैसे स्पर्श किया हो देव की कोमलता को
उधेडती है कल्पना की चादरें
और सीती है दोहरे आयाम
दयनीय और आक्रामक
विद्रोह और मर्म के........
जानती है
जन्म देने से केवल
नही हो सकती मां ......
इसलिए
रचना होगा प्रेमी संतान और ईश्वर को
अपने ही सम्मोहन से..................
श्री.............
जागना और भोगना जागृति को गर्भ की दीवारों को छूकर .............ताप
अवरोध
और भिक्षा पवित्र गान की ..............
अर्जित कर अनदेखे कोणों से
एकत्र कर लिये
गर्भ वाली रात में...............
वो सूक्ष्म अधिकार भी
जो दिये थे हमने एक-दूसरे को
भरी आखों से......
ली थी पीडा की वर्तिका
एक-दूसरे से
सूक्ष्म सम्भोग में
अविलम्ब........
आत्माओं के देवमंत्रों में
निभाई थी हर भूमिका हमने..........
बार-बार तृप्त होते रहे....होते रहे....
महकते रहे स्वर्ग के फूलों से...............
जन्म
मृत्यु
जन्म
मृत्यु
ईश्वर.........
ॐ..............
श्री.......
नमी ......अपनी-अपनी लौटा दी....सब प्रगाढ सम्बंध वर्जनायें..... शिशुबोध के....लौटा दिये.......
चेतनाओं के संदेहों के संदेश
अज्ञात को लौटा दिये....
मित्रवत सब सन्धियां देहों की
लौटा दी अपनी-अपनी
नमी में................
सोख लिया ताबूत सबसे थोडा-थोडा ....................
उड रहा है पंख फैलाए एक शोकगीत
ताबूत के ऊपर..........
सूखा अज्ञात चल रहा है शवयात्रा में.................
श्री...............
मुग्ध प्रवंचनायें......निर्जीव दीवारों में बंद मौन सभायें....आंखें.....अपनी-अपनी प्राचीन वेदनओं में मुंदी...
पात्र अमृत का उतना ही दूर
जितना दूर एक पवित्र किताब से मनुष्य......
घंटे बजते हैं
स्थगित आत्माओं की चीत्कार में...
खून रिसता है......धीरे-धीरे.... ज़मीन तक......
एक मानवीय मुस्कान
टंगी रह गयी होंठों पर.......
पीडा की लकीरों में सोई..........
चुभती हैं कीलें यीशू की
आज भी.......
सो रहे हैं मनुष्य प्रार्थनाओं में......
अब तक भी सूली से नही उतारा
यीशू को ........
श्रद्धा से भरी सभाओं में से........
किसी एक भी हाथ ने.........
श्री............
देह से जुडी स्मृतियाँपरिष्कृत करती है आत्माकितनी ही तहें खुलती हैंएक के बाद एक.....
हर युग के घाट पर
अपना कुछ हिस्सा छोड़ती हुई......
घाट..... स्नेह का
प्रेम का
मृत्यु का......
और उस सम्मोहन का भी
जिसे बांधा था
उस असीमित रात में
और
खोजी थी एक नई लिपि......
स्वप्न सम्भोग की.......
तपता रहा संताप... जीवन और मृत्यु के बीच
जपते रहे नाम ........ एक दूसरे का
छूते रहे हर हद आत्मा की
छलते रहे अपने ही भ्रमों को..........
गिरती रही रश्मियां नई सुबह की
जन्मते रहे जुगनु
अदृश्य सम्भोग के...........
चुभता रहा अपराधबोध दिन बनकर
रात का सम्मोहन.........
पाते रहे मृत्यु छोटे-छोटे टुकडों में............
श्री............
जया जादवानी जी की कहानी 'घाट' से प्रभावित कविता.......