Thursday, May 14, 2015

मुग्ध प्रवंचनायें

मुग्ध प्रवंचनायें......

निर्जीव दीवारों में बंद मौन सभायें....
आंखें.....
अपनी-अपनी प्राचीन वेदनओं में मुंदी...

पात्र अमृत का उतना ही दूर
जितना दूर एक पवित्र किताब से मनुष्य......

घंटे बजते हैं
स्थगित आत्माओं की चीत्कार में...
खून रिसता है......धीरे-धीरे.... ज़मीन तक......

एक मानवीय मुस्कान
टंगी रह गयी होंठों पर.......
पीडा की लकीरों में सोई..........

चुभती हैं कीलें यीशू की
आज भी.......
सो रहे हैं मनुष्य प्रार्थनाओं में......

अब तक भी सूली से नही उतारा
यीशू को ........
श्रद्धा से भरी सभाओं में से........

किसी एक भी हाथ ने.........

श्री............

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