Thursday, May 14, 2015

प्रेम और ईश्वर

प्रेम की भी चेतना होती है और तब-तब परिष्कृत होती है जब—जब वो निर्दोष होती जाती है। हर एक्ट के बाद....यह भी तब जब प्रेम के आकाश पर हमारी रुह छील चुकी होती है खुद को भी।
प्रेम और ईश्वर में मुझे कोई अंतर नही नज़र आता..बेशक देह एक टूल और शब्द औपचारिकता का रिवाज़ हैं लेकिन यह भी क्या राहत नही अपने होने की.....

तुम्हारे लिये.....
तुम्हारे ही शब्दों की धरती पर कदम रखती हूँ हमेशा.....

चिन्ह मात्र का भेद नहीं....
खुलती हैं बेड़ियाँ
अभद्रता की....
शिष्टाचार में जागती है आत्मा

जब छूते हैं तुम्हारे पाँव
मेरे रोम-रोम का आहवान
मेरे इष्ट......

और तब भी
जब मेरा प्रेमी चूमता है
प्रार्थना में उठी मेरी हथेलियों को......

पीडा उठती है प्रसव की...
जानती हूँ....यह मध्यस्थता है
देह और आत्मा की......

हज़ारों तारे टूटते हैं एक साथ
जब-जब जन्मती है कृतज्ञता
मेरे प्रेमी और इष्ट के बेपनाह प्रेम से....

यह जागृति एक नशा है प्रेत छायाओं का
जिन्हें यथार्थ के हाथ
स्वप्न के श्रद्धालुओं से ले आते हैं स्पर्श की रोशनी में

और समय ने यहां भेजा तुम्हें आज
मुझे……संबंध बताने को
ईश्वर और मोमबत्तियों का.........

श्री......................

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