Thursday, May 14, 2015

बुद्ध की आँखें

स्वप्नरेखायें .............
आडी-तिरछी.......अबूझ पहेलियां और तपते रहस्य 

एक के बाद एक सब में डूबते गये.....
जीवन के सूक्ष्मतम तत्व को आत्मा में ग्रहण करते ....
समाधिष्ट होते तत्वों के नन्हें तंतु सुनते.....
शब्द सुनने की कोशिश में मौन को पीते
जिस्मों की अबोली भाषा से....

देह के कमल रहस्यों में खुद को खोजते
जैसे कोई अधूरी कविता को दोहराता है बार-बार.....

तब.....
एक तल खुलता है नया.....जिस पर पावं रखते ही हम तैरने लगते हैं
अपनी-अपनी समाधियों के नव-शिल्पों की शीतल धारा में......
धीरे-धीरे उतरने लगती है रात
शिथिल आत्माओं की सफेद चादरों पर.........

हम चूमते हैं उंगलियां एक-दूसरे की, विस्तारित रात के पाखियों की कलरव में.....
टांगते जाते हैं एक-दूसरे के अनकहे शब्द..... बोधि वृक्ष की शाखों पर...

हम सोते हैं बुद्ध की आंखों में
और जागते हैं बुद्ध की ही आंखों में.........

श्री...............

बिंदु

प्रस्थान........ श्रेष्ठता की ओर
और तथाकथित पवित्रता के हाथ मृत्यु की औपचारिकता मात्र निभाते हैं.........

अपराध........ मूर्खतापूर्ण
निर्रथक रचनात्मकता का अंतर्विरोध हैं..............

मृत्यु के लोक में एक स्वर्ग भी सांस लेता है
छुपी हुई.......
जैसे मनुष्य के भीतर ईश्वर जन्म लेता है
कभी - कभी.......

गुलाम आत्मा चुनता है जीवन
ताकि देख सके अपराध... अपनी अंधी आंखों से.....

विकृत सदियां पलती हैं समय के लिसलिसे अंधेरों में...
खौलते बुद्धिमान चेहरे हंसते हैं एक नई हंसी में दुनिया पर...
हम लौट आते हैं थके हुए अपने बिंदु पर
फिर चाहे यह आत्मछल ही हो.........

धर्म की अपनी – अपनी लडाईयां हैं
और.....
मनुष्य निर्जीव ईश्वर की खाल में शिकार तलाशता है.......
रोज़ नये............

श्री.........

अदृश्य दीवारों के पीछे

अदृश्य दीवारों के पीछे
रचती है दृश्य .......

गिनती है अनगिनत महीने गर्भ के 
देखती है सपाट उदर को बढते 

हाथ पिता के छूती है
जैसे स्पर्श किया हो देव की कोमलता को

उधेडती है कल्पना की चादरें
और सीती है दोहरे आयाम
दयनीय और आक्रामक
विद्रोह और मर्म के........

जानती है
जन्म देने से केवल
नही हो सकती मां ......
इसलिए
रचना होगा प्रेमी संतान और ईश्वर को
अपने ही सम्मोहन से..................

श्री.............

आत्माओं के देवमंत्र

जागना 
और भोगना जागृति को 
गर्भ की दीवारों को छूकर .............

ताप 
अवरोध
और भिक्षा पवित्र गान की ..............

अर्जित कर अनदेखे कोणों से
एकत्र कर लिये
गर्भ वाली रात में...............

वो सूक्ष्म अधिकार भी
जो दिये थे हमने एक-दूसरे को
भरी आखों से......

ली थी पीडा की वर्तिका
एक-दूसरे से
सूक्ष्म सम्भोग में
अविलम्ब........

आत्माओं के देवमंत्रों में
निभाई थी हर भूमिका हमने..........

बार-बार तृप्त होते रहे....होते रहे....
महकते रहे स्वर्ग के फूलों से...............

जन्म
मृत्यु
जन्म
मृत्यु
ईश्वर.........
ॐ..............
श्री.......

नमी

नमी ......
अपनी-अपनी लौटा दी....
सब प्रगाढ सम्बंध 
वर्जनायें..... शिशुबोध के....
लौटा दिये.......

चेतनाओं के संदेहों के संदेश
अज्ञात को लौटा दिये....

मित्रवत सब सन्धियां देहों की
लौटा दी अपनी-अपनी
नमी में................

सोख लिया ताबूत सबसे थोडा-थोडा ....................

उड रहा है पंख फैलाए एक शोकगीत
ताबूत के ऊपर..........

सूखा अज्ञात चल रहा है शवयात्रा में.................

श्री...............

मुग्ध प्रवंचनायें

मुग्ध प्रवंचनायें......

निर्जीव दीवारों में बंद मौन सभायें....
आंखें.....
अपनी-अपनी प्राचीन वेदनओं में मुंदी...

पात्र अमृत का उतना ही दूर
जितना दूर एक पवित्र किताब से मनुष्य......

घंटे बजते हैं
स्थगित आत्माओं की चीत्कार में...
खून रिसता है......धीरे-धीरे.... ज़मीन तक......

एक मानवीय मुस्कान
टंगी रह गयी होंठों पर.......
पीडा की लकीरों में सोई..........

चुभती हैं कीलें यीशू की
आज भी.......
सो रहे हैं मनुष्य प्रार्थनाओं में......

अब तक भी सूली से नही उतारा
यीशू को ........
श्रद्धा से भरी सभाओं में से........

किसी एक भी हाथ ने.........

श्री............

घाट

देह से जुडी स्मृतियाँ
परिष्कृत करती है आत्मा
कितनी ही तहें खुलती हैं
एक के बाद एक.....

हर युग के घाट पर
अपना कुछ हिस्सा छोड़ती हुई......

घाट..... स्नेह का
प्रेम का
मृत्यु का......
और उस सम्मोहन का भी
जिसे बांधा था
उस असीमित रात में
और
खोजी थी एक नई लिपि......
स्वप्न सम्भोग की.......

तपता रहा संताप... जीवन और मृत्यु के बीच

जपते रहे नाम ........ एक दूसरे का
छूते रहे हर हद आत्मा की
छलते रहे अपने ही भ्रमों को..........

गिरती रही रश्मियां नई सुबह की
जन्मते रहे जुगनु
अदृश्य सम्भोग के...........

चुभता रहा अपराधबोध दिन बनकर
रात का सम्मोहन.........

पाते रहे मृत्यु छोटे-छोटे टुकडों में............

श्री............

जया जादवानी जी की कहानी 'घाट' से प्रभावित कविता.......

लघुतम का बोध

बूढा होता एक द्वीप.....
लघुतम को समझते
स्वीकारते
सम्मान के हाथों पछताते.......

पाप को मरियम के सामने बुदबुदाते......

अकेले में रोते
स्थिर होते
काठ की इच्छाओं को परखते.....

स्वीकार करते
कि हर लघुतम का बोध है अनकहा आख्यान.......

किसी छिपी इच्छा से ही
बूंद और सागर के फासले को जाना जा सकता है

और किसी छिपी इच्छा से ही
मुक्त हुआ जा सकता है ....... पाप से..........

श्री..............

जिस्मों का संवाद

जिस्म की मिट्टी में गूंधी
एक दोपहर
सुन रही थी लोबान का संगीत 
रेशे-रेशे से......
कामना के रंगों से रंगी जिज्ञासा
हर शह को खोजने की अभिलाषा
हर आह को पीने की चाहत
और संवाद............

संवाद जिस्मों की मिट्टी का
खुदा ने भी सुना..
उन दो हाथों की प्रार्थनाओं के बीच
अपने निर्माण पर हैरान था........

त्वचा रिसती रही, रिसती रही
बहाती रही मुक्ति......

जिस्मों के संवाद पर
कायनात ने एक गीत रचा
और रख दिया
ह्व्वा की कोख में......
मिट्टी मिल गयी मिट्टी में
संवाद संवाद में
और
प्रार्थना प्रार्थना में…...

बचा क्या था
क्या अब भी नही समझे..............

श्री..............

एक लाल गुलाब की कीमत - ऑस्कर https://soundcloud.com/shree-shree-2/m2wc0r5uhyqc वाइल्ड

संघर्ष की रोटी

एक रंगरेज़ देखा
चिथडों में....
रंग रहा था
दिवारों पर 
संघर्ष की रोटी.....
श्री......

प्रेम और ईश्वर

प्रेम की भी चेतना होती है और तब-तब परिष्कृत होती है जब—जब वो निर्दोष होती जाती है। हर एक्ट के बाद....यह भी तब जब प्रेम के आकाश पर हमारी रुह छील चुकी होती है खुद को भी।
प्रेम और ईश्वर में मुझे कोई अंतर नही नज़र आता..बेशक देह एक टूल और शब्द औपचारिकता का रिवाज़ हैं लेकिन यह भी क्या राहत नही अपने होने की.....

तुम्हारे लिये.....
तुम्हारे ही शब्दों की धरती पर कदम रखती हूँ हमेशा.....

चिन्ह मात्र का भेद नहीं....
खुलती हैं बेड़ियाँ
अभद्रता की....
शिष्टाचार में जागती है आत्मा

जब छूते हैं तुम्हारे पाँव
मेरे रोम-रोम का आहवान
मेरे इष्ट......

और तब भी
जब मेरा प्रेमी चूमता है
प्रार्थना में उठी मेरी हथेलियों को......

पीडा उठती है प्रसव की...
जानती हूँ....यह मध्यस्थता है
देह और आत्मा की......

हज़ारों तारे टूटते हैं एक साथ
जब-जब जन्मती है कृतज्ञता
मेरे प्रेमी और इष्ट के बेपनाह प्रेम से....

यह जागृति एक नशा है प्रेत छायाओं का
जिन्हें यथार्थ के हाथ
स्वप्न के श्रद्धालुओं से ले आते हैं स्पर्श की रोशनी में

और समय ने यहां भेजा तुम्हें आज
मुझे……संबंध बताने को
ईश्वर और मोमबत्तियों का.........

श्री......................

ईश्वर

जन्म लेना चाहती हूँ
नम्रता के तल पर....
विलिन आकाश की भंगिमाओं में शामिल
तुम्हारा चेहरा नही दिखता........
ईश्वर.......

श्री..........

एक भाषा जन्म लेती है

आंखें खोलती हैं पत्तियां
अब उमस भरी रातों के उपर सोकर
तलाशती हैं 
दाग वाले बिछौने और धूप से सने चुम्बनों के निशान
कुछ रात के सीने पर
और कुछ
जो जा चुके थे आत्मा की संकरी गली तक...

कोई तारा बहकता है अपनी ही बातों में
निष्पाप
सूखे प्रेम के स्वांग के साथ....

एक भाषा जन्म लेती है
जिसे समझने के लिये
हम और करीब हो जाते हैं सुबह.......

यह आत्माओं के शहर में किस हद तक दीवानगी छूती है जीभ से हर निशान.......ढका हुआ......

श्री............

श्रीबीज

कुछ यूं भी रिक्त होता हूँ
रक्तबीजों से...
जब चुनता हूँ
श्रीबीज
तुम्हारी करूणा के...
ताकि
समाहित हो सकूं
सृष्टि के विस्तार में
देर तक सुनता रहा तुम्हें
तुम्हारे जाने के बाद
बुदधम
शरणम
गच्छामि.....
श्री.........

मेरा आध्यात्मिक प्रेमी

विराम
है समाप्त....
मेरे उष्मा केन्द्र
जाग्रत होना चाहते हैं तुमसे....
केवल तुमसे....
मेरा आध्यात्मिक प्रेमी
मुस्कुराता है
एक प्राचीन सत्य के साथ....
उसके भोग में
कोई अंश नही दुनिया का....
मैं भी
उसकी आत्मा के सीने पर
पैर रख
उतारती गयी....
अपनी
मासूमियत
तर्क
बिखराव
स्मृतियां
संबंध
और देह.......
बहुत समय बाद वो पूरे चांद की रात थी.......
श्री.........

लाल रोशनी

अंबर का दरवाज़ा खुला.....
एक नीला तारा
मेरी जमी रातों की दहलीज़ पर उतरा.....
सोते अधखुले होंठों पर
धूप का गीला मौसम रख
रात भर
मुझे अपनी चादर में समेटता रहा.....
हथेलियां नम थीं
खोई रही दुआ मांगती.....
आंखें खुलतीं
तो देख पाती उस मुराद का चेहरा
मद्धम मद्धम जो घुल रहा था मुझमे....
उस रात सब लाल था....
लाल रात
लाल रोशनी
लाल बिस्तर
लाल अंगडाई
और......................

श्री.......

रिक्तता

मैं .......
रिक्त होता हूँ तुमसे
जब-जब तुम छलती हो मुझे....
जितनी बार रिक्त होता हूँ
उतनी बार 
एक नया रहस्य खुलता है तुम्हारा.....
क्यूं ना आज
सारा रहस्य पी लूं
तुम्हारी छोटी उंगली चूस कर
और भर दूं तुममे वो रहस्य
जो मैने छुपा रखा था
जब मैं केवल एक मनुष्य था.........
आओ....
फिर एक छलना करो मुझसे.....
और भर दो मुझे रिक्तता से
ताकि
मैं पी सकूं
तुम्हारी एक-एक बूंद.........

श्री......

नाभि के पास एक चंद्रमा



तुम्हारी नाभि के पास
एक चंद्रमा है काला...
उस अनंत सौन्दर्य की गरिमा में
मैं उसे छू कर
निर्वाण नही देना चाह्ता......
तब तक दृश्य बनाता रहूंगा
जब तक एक भी सांस का
आरोह-अवरोह भिन्न है.....
जब लयबद्ध हो जायेगी
सृष्टि
तुम्हारे अंतस के संगीत से....
जान लोगी मेरा अज्ञात
और
पांव रख लोगी
मेरी गुफा में.....
तब
मैं प्रवेश करुंगा
तुम्हारी नाभि में..........................
श्री...........

Thursday, January 22, 2015

कोई किताब जब लाते हो तुम मेरे लिये
उस पर हस्ताक्षर करते हो अपने होठों से
तब के समय से लेकर अब तक वो हस्ताक्षर
मेरी नसों में एक नया ईश्वर रच रहे हैं....
मुझसे पढी नही जाती अब कोई और किताब...

शब्द

शब्द इच्छा नहीं रचते....
शब्द इच्छा रचते हैं और
दूरियां प्रेम..
कितने बेढंगे तरीके से सोचती हैं 
आत्मा की इमारतें..
प्रेम के परे जाना, देह से छूटा कोई बुलबुला नहीं..
प्रेम – एक गुमनाम चिट्ठी और उस पर लिखा सही पता
या कुछ ऐसा ही पागलपन लिये
चलता है डाकिये के साथ..
हम दोष देते हैं
वो हंसता है..
क्योंकि शब्द केवल इच्छा बताते हैं....
रचते नही....
श्री
....
एक निर्दोष कविता.......
कविता की मेरी अपनी आत्मा है
अपनी गंध और नशा
कच्ची शराब सा..
सामने की खिड़की
से 
दिखाई देती रात से अलग..
हालाकि रात का भी अपना सौंदर्य है
पर मैं अपनी कविता में
कोई आंसू नहीं एकत्रित करती
न धूप न बारिश न रंग
और न कोई आवाज़..
आवाज़ें कोलाहल को जन्म देतीं हैं
मुझे ज़िंदगी का यह कोलाज पसंद नही..
न ही पसंद है ढेर सा पानी और मिट्टी..
दरअसल मेरी अपनी कोई विशेष चाहत अब बची ही नही मुझमें
ये नसीहतें मेरे पिता ने दीं
कि चाहतों को कैसे सिमिट्री में देखतें हैं
कुछ सुंदर कलियों और रोती हुईं चिडियों के साथ...........
वर्षों बाद अब जब सब बदल चुका
और मैं भी परिप्क्व औरत बन चुकी
थोडी भारी और बिना रंगे नाखूनों वाली..
तब मैंने एक दिन देखा
कि अब मैं बीच रास्ते पहुचं चुकी
जहाँ से दुनिया आपकी आत्मा से दूर दिखाई देती है
यह एक डर था...
एक भूलभूलेया थी...
अपने को खोने की...
उस पल मेरी आंखे बंद थीं
और अब बस यह एक बार होने के लिये था..
जब आंखे खोली तो देखा
मेरे हाथों में एक कविता थी
बिना रंग, बिना धूप, बिना आंसू और बिना आवाज़ के..
लकिन उसमें एक आत्मा थी..
बिल्कुल निर्दोष .............
वो रात भर बैठा रहा 
उसके दिल पर दस्तक देता
कॉफी के घूंट गले में उतारता
कि शायद कोई होगी बेज़ार सी मुशकिल
या हो भी सकता है
कि नींद ने अपने आगोश में लिया हो उसको
और यहाँ रात है कि ढलने का नाम नही लेती...

गुलाबी झील

यह तब की बात है
जब मैंने एक गुलाबी झील में हिचकिचाते हुए पैर रखा था
बंद लिफाफे खुलने से डरने लगे
कांपती उंगलियों से सिकोडे रहे खुद को
जैसे उनमें से तितलियों के पंख लगा कर
अक्षर शब्द बनकर उडानें भरने लगेंगें
और लिफाफों में बंद तस्वीरें बोलने लगेंगी
मैं आसमान में बैठे बादलों के बेहिसाब झुंड में से
किसी एक में छिप जाना चाहती हूँ
बूंद बूंद बह जाना चाह्ती हूँ बारिश के संग
तब वो घूरती आंखे कितनी बूंदो को इक्क्ठा करेंगी
और मुझे दोबारा बनाएंगी
मैं दस सूरज देखती हूँ
और एक की ओट लेती हूँ
यकीनन वो घूरती आंखे वहाँ पिघल जाएंगी
मै उन लिफाफों को जबरन बंद करती हूँ
इस कोशिश में
मेरे हाथ से लगकर पास रखा पारदर्शी फूलदान गिर जाता है
और गिर जाते हैं वो सूखे फूल
जो प्रेम का आग्रह थे...
जन्मदिन की बधाई थे...
और कुछ बस यू ही थे...
वे वैसे ही थे कि वो सूखे ही थे
इस झील में कोई हंस मोती बटोर रहा था
पगला कहीं का......

श्री...

अजन्मे डरों का अंधेरा
जब घेरता है
मुझे
तो जानते हो 
कहाँ सर छुपाती हैं
मेरी तमन्नाये ...
तुम्हारी गोद में..

नाभि की हलचल

नाभि की हलचल मैं समझ न सकी
मेरा ‘मैं’ वजूद में उतरा
भोर के रह्स्यमयी हरसिंगार की
महक में दहकी
मुहब्बत की तपिश ने
कोख को चूमा
और अम्बर के सारे सितारे
मेरे घर की छत पर उतर आये.....
मै......बासुंरी बन गयी....
श्री
..

खोना तुम्हारे बालों में

खोना तुम्हारे बालों में
मेरी उंगलियों का 
अब तक ढूंढ नहीं पाई..
क्या सुना था तुमने 
सदियों की सरसराहट में
कांपते गुलाबी होठों को प्रेमगीत गुनगुनाते...
आओ.....ले चलूं तुम्हें वहीं.....

एक जोगी है

रात आते-आते
छूट जाते हैं मुझसे सब रिश्ते..
नाम भी मेरे जिस्म से उतर जाता है
मैं...अबोध ह्व्वा हो जाती हूँ
ऐसी ही रातों को 
मैं चांद से मिलती हूँ...
एक जोगी है
जो देखता रहता है मुझे चुपके से
और मैं उसे....
मीलों दूर से...
तब से हर रात सरिस्का वन चांदनी में नहाया है.........
श्री...

एक फूल

स्पर्श
चुम्बन
आलिंगन
देह का समागम
ऐसा कुछ नही मिलेगा मेरे प्रेम में तुम्हें..
हाँ.....
एक फूल दे सकती हूँ
बुद्ध की चेतना से लिया था एक दिन...
क्या ले पाओगे उसे...
श्री.....

रोशनी के घाट

चाँद भी तो कहाँ रोशन होता है
उसके बिना...
उसकी किरणें जब दमकती हैं
तो संसार जागता है
मैं भी तभी जागी
जब उसकी आंच में सुलगी..
तब कहीं जाकर जाना
उसकी अपनी लौ को
मेरी अपनी लौ को...
कितने युगों से हूँ उसके साथ
सारे कदम गिनें हैं
पर आखिरी तीन कदमों में
उसे पाया मैनें
रोशनी के घाट पर.......
श्री...

अर्धनारीश्वर

उस रात....
मैं कितनी बेचैन थी
जब तुम दर्शन समझा रहे थे
मैं उलझ रही थी तुमसे क्रोध में
और तुम मुझसे प्रेम में...
कि कोई दर्द का रेशा मेरा हाथ लग गया तुम्हारे
बहुत देर तक खामोशी से बही थी आंखें
सोचा...
दीखता कहाँ है यह..
पर तुमने न जाने कौन सी तार से जमा कर लिये सब आंसू
मैं सो गयी दर्शन में उलझते
तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर...
कितनी देर तक
तुमसे उगा अर्धनारीश्वर
मेरे उलझे बालों को सुलझाता रहा........
तब से जी रही हूँ...............

श्री....

नीलकंठ

एक सौ आठ स्वप्न थे पूरे
जो देखे मैंने अकेले
प्रयाग धाम पर खडे हुए..
कोई भी स्वप्न मेरी धमनियों को तृप्त नहीं कर पाया
प्रयाग की सीढियों पर बैठे 
मैंने कई प्रार्थनायें समर्पित की अपने अज्ञात को
मगर हर आवाज़
हर प्रार्थना
समूचा अस्तित्व कण
लौट रहा था...बार बार
क्योंकि उनमें से एक भी स्वप्न
तुम्हारे गले को छूकर नहीं आया था........
नीलकंठ.......
श्री......

लिबास

हर रात, तुम्हारे जाले बुनते हैं सूक्ष्म मेरा
हर रात बहती हूँ
तुम्हारी रोशनियों की पवित्रता में
गाती हूँ तुम्हारे कानों में
ब्रहमांड के मौन गीत....
झूलती हूँ तुम्हारी चेतना के झूलों पर
नई बनी तितली जैसे..
नहाती हूँ तुम्हारी देह के प्राचीन जलकुंडों में..
पहनती हूँ तुम्हें अपना लिबास बनाकर..
तब कोई कविता जन्म लेती है मुझसे...
मैं.....ऐसे ही कविता कहाँ लिखती हूँ.........
श्री....

अनहद नाद

तीन ताल
सात सुर
मृदंगना का स्वर
और काम का मोहक सौंदर्य
सब दहक रहा है तुम्हारे तांडव में
देख रही हूँ तुम्हें
कैलाश को थरथराते....
पर देखो
मैंने भी खुद को ढाल लिया
उसी रंग में
जिस रंग में तुम्हारी आंखें हैं स्थिर
मेरी अधमुंदी कामनाओं को पीती हुईं...
सप्तपदी का धर्म निभाना नहीं आता मुझे
मैं बस प्रेम में हूँ तुम्हारे...
यह सात बूंदे विष की तो मैंने भी पी हैं
तुम्हारे अस्तित्व से खुद को सींचा है...
तुम्हारी मुद्राओं को स्थापित किया है अपने वसंत्तोसव पर
अनंतता के बोध में
यह प्रथम कामरात्रि है
मैं खो चुकी हूँ सब, जो था मेरा
सुन रही हूँ अनहद नाद...
ओ मेरे सनातन.........
श्री....
अक्षत मंथन की
गूंज
दिन देखा हर सीप ने..
सुना
महाप्रलय का भय..
थरथराया
समूचा नक्षत्र संसार..
विष
मगर एक ही महामानव पीता है
ॐ.......
श्री......

आज

आज....
एक भोले पीर ने
किताब दी कोई

हर्फ खुले तो जाना 
जन्मों के हलफनामें थे उसमे...
लोग बोले....
ये पीर तो झल्ला है
इसका क्या यकीन..
सुनते ही.....मेरी आंखे रुक गयीं उस भोले पीर पर
देखा..........
वह तो खुदा है
कायनात के दर पर......
मैं उसका नूर देख रही थी
कि नूर का एक पिघला टुकडा छिटक कर
मेरे वजूद से आ मिला...
मैं कोरी हो गयी
दरगाह पर बंधे धागे जैसी...
धीमी आवाज़ में कोई शख्स कह रहा था
लो.....ये भी झल्ली हो गयी......

श्री........

Wednesday, January 21, 2015

मैं इतिहास बन गया..

पैरों की हरी नसों की 
इबारतें पढते 
तुम्हारी पाजेब और बिछुओं की भाषा को सुना..
न जाने क्यों
माथे की लाल बिंदी शरमा गयी..
मैनें उसे पास आने का संकेत दिया..
कानों में झूलते बुंदे मुझसे उलझ पडे
मैंने तांबाई रंग को सीने में भरा..
भाग्यरेखा बताती तुम्हारी हथेली पर अदृश्य सावन रखे..
खिडकी खुली थी
और चांद झुक कर भीतर की दीवार पर जम गया..
एक थमी सी धरती की कथई रोशनी को
सुबह तक मंत्रों में ढाला ...
न जाने क्यों तुम्हारी पीठ नाराज़ हो गयी
और तुम्हारी आंख से
एक आंसू मेरी सफेद कमीज़ पर गिर गया....
रात भर तुम्हें पढते-पढते
मैं इतिहास बन गया.............

आत्मा का उत्सव 
सुनो,
कितना अविश्वसनीय है
कि मेरी तृप्ति का जल
तुम्हारे रंग का है..
याद है
एक बार
मिश्री के दाने खिलाये थे मुझे
गोधूलि बेला में..
चंदन महक रहा था
मेरी काया से..
तुम्हारे होंठ
मंत्र फूंक रहे थे आस्था का
मेरे होंठों में..
मैं अनिश्चित.....कि किस युग के घाट उतरु
कहूँ तुमसे
कि बांधों मेरे पैरों में पाजेब
समाधि के मनकों की
और
विकसित कर दो
मेरे सभी चक्र.........
श्री......
रचना हूँ..
तुम्हारे देवतत्व के उच्चतम शिखर की
जो बिखरा पडा है
मेरी आत्मा के सिरहाने....
एक सुराही है.. 
जिसे बरसों से भर रखा है मैंने
उस रहस्य से
जिसमे मैं तब प्रवेश नही करती
जब रजस्वला होती हूँ.....
नई होकर
जब लौटती हूँ तुम्हारे पास
तो अपनी धुली चेतना के धागों से
एक बार फिर
बुनती हूँ
वही प्राचीन रहस्य.....
जिसे तुमने निगल लिया था नींद में.....
श्रृंगार किया था मेरा
और नाम दिया था मुझे...
सजनी.........
श्री....... 

वो....... 
एक कतरा भर था
सूरज के कटोरे से होशमंद हुआ
वीणा के तारों में
कोई शब्द फूंक रहा था...
सांसें बिखरती
तो चांद की सफेदी ओढ़ लेता
पर गुनगुनाता रहा वो सदियों तक....
हथेली पर
सुख की मेंहदी से अपना नाम लिख
बस जाने को ही था
कि सभ्यता की सब दीवारें ढह गयी...
हथेली कांप गयी मेंहदी वाली
कि ऐसे जाने से
भला कोई प्रार्थना पूरी होती है
रब की......
और उस बात के बाद
वो होशमंद कतरा
कभी नही गया
किसी और हथेली पर
सुख रचने...........

श्री...........