अदृश्य दीवारों के पीछे
रचती है दृश्य .......
गिनती है अनगिनत महीने गर्भ के
देखती है सपाट उदर को बढते
हाथ पिता के छूती है
जैसे स्पर्श किया हो देव की कोमलता को
उधेडती है कल्पना की चादरें
और सीती है दोहरे आयाम
दयनीय और आक्रामक
विद्रोह और मर्म के........
जानती है
जन्म देने से केवल
नही हो सकती मां ......
इसलिए
रचना होगा प्रेमी संतान और ईश्वर को
अपने ही सम्मोहन से..................
श्री.............
रचती है दृश्य .......
गिनती है अनगिनत महीने गर्भ के
देखती है सपाट उदर को बढते
हाथ पिता के छूती है
जैसे स्पर्श किया हो देव की कोमलता को
उधेडती है कल्पना की चादरें
और सीती है दोहरे आयाम
दयनीय और आक्रामक
विद्रोह और मर्म के........
जानती है
जन्म देने से केवल
नही हो सकती मां ......
इसलिए
रचना होगा प्रेमी संतान और ईश्वर को
अपने ही सम्मोहन से..................
श्री.............
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